BA Semester-5 Paper-2B History - Socio and Economic History of Medieval India (1200 A.D-1700 A.D) - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2B इतिहास - मध्यकालीन एवं आधुनिक सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास (1200 ई.-1700 ई.) - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2B इतिहास - मध्यकालीन एवं आधुनिक सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास (1200 ई.-1700 ई.)

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2788
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2B इतिहास - मध्यकालीन एवं आधुनिक सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास (1200 ई.-1700 ई.) - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- 18वीं सदी के पूर्वार्ध में भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति की व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध में भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति

मुगल राज्य एक वर्ग-आधारित राज्य था, जिसमें शासक वर्ग लोगों के परिश्रम के फल का दोहन करते थे। मुगल शासन 'सदा अंतृप्त रहने वाला महादानव' नहीं था, जिसकी ससाधनों की भूख कभी मिटती ही नहीं थी। इसी तरह वह मात्र 'देश - विजय पर आधारित राज्य' भी नहीं था। पूर्ववर्ती हिन्दू राज्य और परवर्ती इस्लामी राज्य दोनों के पास कृषि का विकास करने तथा व्यापार और वस्तु - निर्माण को प्रोत्साहन देने का एक निश्चित दर्शन था। दोनों के लिए प्रभुसत्ता का अर्थ लोगों की सुरक्षा था। उन्हें वाणिज्य के महत्व का एहसास था, और परंपरागत रूप से वे साधारण दुकानदारों तथा थोक और विदेश व्यापार में लगे बड़े-बड़े व्यावसायिक घरानों के बीच भेद करते थे। बड़े घरानों के सदस्य शासकों के लगभग समकक्ष माने जाते थे और आवश्यकता पड़ने पर अतिरिक्त सहायता के लिए उनसे गुहार की जा सकती थी। जिनमें साम्राज्य से टूटकर अलग होने वाले प्रांत या रियासतें भी शामिल थीं। स्थापित होने से और उनके तथा उदीयमान मराठा, जाट, अफगान और सिख राज्यों के बीच चलने वाली लड़ाइयों से भी कानून और व्यवस्था में कोई व्याघात नहीं पड़ा और न ही अर्थव्यवस्था का काम करने का सिलसिला गंभीर रूप से प्रभावित हुआ। नए शासक वर्गों ने सिकुड़ते मुगल अभिजात वर्ग की जीवन-शैली की नकल की, और अपने-अपने राज्य-प्रदेशों के वाणिज्य और उद्योग को बढ़ावा दिया। इसका एक प्रमाण यह है कि न तो अंग्रेज और डच और न फ्रांसीसी व्यापारिक कम्पनियों को ही यूरोप को उनके बढ़ते निर्यात की जरूरतें पूरी करने के लिए कपास, रेशम और अन्य माल प्राप्त करने में कोई कठिनाई महसूस हुई। कुछ 'चमकते' नगरों का, जैसे दिल्ली और आगरा का ह्रास हुआ, लेकिन उसकी भरपाई फैजाबाद और बनारस, पूणा और हुगली जैसे नगरों के विस्तार से हो गई। इस प्रकार, कुल मिलाकर अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध को बढ़ते विशहरीकरण या उद्योग-व्यापार के पतन का काल नहीं कहा जा सकता।

इजारे की व्यवस्था

अठारहवीं सदी एके ऐसा काल था जब नकदी व्यवहार गाँवों में और भी व्यापक रूप से फैला। एक हद तक इसका कारण कपास, नील और तम्बाकू जैसी नगदी फसलों का विकास और साथ ही यूरोप की कपड़े की और कुछ पड़ोसी देशों की तम्बाकू की बढ़ती हुई माँग पूरी करने के लिए निर्यात की अभिवृद्धि थी। लड़ाइयों के लिए नकद राशियों की जरूरत थी, जो या तो साहूकारों (व्यापारी -सह- बैंकरों) से कर्ज लेकर या जमीन को इजारे, अर्थात् राजस्व ठेकेदारी पर देकर जुटाई जाती थी। इस काल में इजारे की प्रथा का विकास हुआ। कभी-कभी साहूकारों को उनसे कर्ज ली गई रकमों की अदायगी के लिए भी इजारे पर भूमि दी जाती थी। लेकिन अनेक अवसरों पर स्वयं साहूकार ही इजारे पर गाँव हासिल करने को उत्सुक रहते थे। 1767 में मोहनराम इंदरचंद ने भूतपूर्व जयपुर राज्य के खंडेला परगने में 60,000 रुपए की रकम के एवज में दो ताल्लुकों का इजारा हासिल किया। उसने इन गाँवों की जमा का हिसाब 1,00,000 रुपए लगाया था।

अठारहवीं सदी में मध्य भारत पर होल्कर और सिंधिया का प्रभुत्व था। इतिहासकार माल्कम मेमॉयर्स ऑफ सेंट्रल इंडिया में लिखा है कि- 'मराठा शासकों का भू-प्रदेश आम तौर पर किराए (इजारे) पर लगा रहता है, और चूँकि बहुत से किराएदार या तो साहूकार या साहूकारों से कर्ज लेकर अपना कारोबार करने वाले लोग होते हैं, इसलिए उन्होंने राज्य की परिषद् और प्रांतों के स्थानीय प्रशासन दोनों में काफी प्रभाव हासिल कर लिया है और उस प्रभाव को कायम रखते हुए उसका उपयोग वे सीधे अपनी थैली भरने के लिए करते हैं।'

मराठा शासक कुछ बड़े इजारेदारों से एक-दो साल के राजस्व की अग्रिम अदायगी की माँग करते हैं और ये लोग इसके लिए साहूकारों से माहवारी एक प्रतिशत के ब्याज पर कर्ज ले लेते हैं।

लेकिन इस सम्बन्ध में हमें स्पष्ट जानकारी नहीं है कि नगरों में रहने वाले साहूकारों को इजारा देने का कितना रिवाज था। वास्तव में, इजारेदारों में सबसे अधिक लोग वे थे जो गाँवों से जुड़े हुए थे - अर्थात् जमींदार, जागीरदार, धनी-मानी किसान, जिनमें महाजन, पटेल आदि शामिल थे। आंबेर तथा अन्य रियासतों के शासकों ने भी कुछ ऐसे इलाके दीर्घकालीन इजारे पर लिए जो मुगल मनसबदारों को जागीर के तौर पर दिए गए थे। इजारे की प्रथा के अमल में साहूकार मुख्य रूप से मालजामिनों के रूप में शिरकत करते थे, अर्थात् इजारे के जो अनुबन्ध होते थे उनके पालन के वे जमानतदार बन जाते थे। कभी-कभी जमींदार भी भू-राजस्व की अदायगी के लिए साहूकारों से कर्ज लेते थे। स्रोतों से मालूम होता है कि अवध में यह रिवाज हो गया था कि जब भू-राजस्व बाकी पड़ जाता था तो उसका भुगतान परिवार का साहूकार करता था। अगर जमींदार या ताल्लुकेदार साहूकार को भू-राजस्व की अदायगी के लिए पर्याप्त राशि नहीं दे पाता था तो साहूकार अपने पैसे से भुगतान कर देता था और जब जमींदार या ताल्लुकेदार के पास पैसा आ जाता था तब वह अपना हिसाब, माहवारी एक प्रतिशत से लेकर कभी-कभी तीन प्रतिशत तक के ब्याज के साथ, पूरा कर लेता था।

 

बैंकिंग

एक और संस्था के सहारे भी बैंकर -सह- व्यापारी या साहूकार प्रशासनिक प्रक्रियाओं से घनिष्ठता से जुड़ गया। भू-राजस्व अथवा अन्य प्रकार की राशियों के भुगतान के लिए दूरस्थ स्थानों तक पहुँचाने के लिए बीमा-हुंडी के तरीके का इस्तेमाल किया जाने लगा। अठारहवीं सदी के मध्य तक बंगाल या खालिसा से प्राप्त भू-राजस्व का अधिशेष करोड़ों रुपए में था। जगत् सेठ द्वारा हुंडी के रूप में यह धन दिल्ली भेजा जाता था।

 

जमींदारी व्यवस्था

इस काल में जमींदारियों की अपेक्षाकृत अधिक बिक्री के प्रमाण मिलते हैं, लेकिन ये जमींदारियाँ आमतौर पर छोटी-छोटी होती थीं। जमींदारियों का विक्रय मूल्य उससे प्राप्त सालाना राजस्व का लगभग केवल ढाई गुना हुआ करता था। इससे लगता है कि इन जमींदारियों से होने वाली आमदनी बड़े-बड़े साहूकारों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं थी। बड़ी जमींदारियों का विकास जागीर प्रथा के कमजोर पड़ने के फलस्वरूप हुआ, क्योंकि उससे शक्तिशाली लोगों को अपना-अपना प्रभाव क्षेत्र बना लेने का मौका मिल गया। इस प्रकार, योग्य और समर्थ लोग, जो अपने कुछ अनुगामी या जमीअत जुटा सकते थे, आगे निकल गए। इससे नीचे के स्तर पर देखें तो मदद-ए-मआश के तौर पर आवंटित जमीनों के एक-के-बाद-एक शासकों द्वारा पुष्टि किए जाने के तकाजे के खत्म हो जाने से ये जमीनें जमींदारियां बन गईं। इनके छोटे-छोटे जमींदार गाँवों में रहते थे, और उनसे एक लघु भूस्वामी अभिजन समूह तैयार हो गया। इन लोगों का जीवन-स्तर गाँव के दूसरे लोगों से थोड़ा ऊँचा था, और इसलिए उनमें शहरी चीजों के लिए एक ललक थी।

 

महंगी धातुओं की स्थिति

सिक्के ढालने की अन्य धातुओं, अर्थात् सोने और ताँबे की तुलना में चाँदी की कीमत में 1550 और 1700 के बीच बहुत गिरावट आई। सत्रहवीं सदी के अन्त तक सोना चाँदी के मुकाबले डेढ़ गुना महंगा हो गया। ताँबा पहले की अपेक्षा दोगुने से भी ज्यादा महंगा हो गया था। जहाँ 1582 में एक रुपया ताँबे के 40 दामों के बराबर होता था, 1700 में वह केवल 14 दामों के बराबर रह गया। इन परिवर्तनों का कारण मुख्य रूप से भारत में अमेरिकी सोने की आवक को बताया गया है। यह सोना यूरोप के मसालों और भारतीय माल-जैसे कपड़ा, नील, शक्कर और घी की माँग का खर्च पूरा करने के लिए उस महाद्वीप से होकर भारत में पहुँचता था।

यूरोपीय कम्पनियों द्वारा भारत में चाँदी का बड़ी मात्रा में समावेश के बावजूद मूल्य इतने कम बढ़े, यह भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती का द्योतक है। इस थोड़ी मूल्य वृद्धि को "मूल्यों में क्रान्ति" की संज्ञा नहीं दी जा सकती जैसा कि यूरोप के बारे में धारणा है। किन्तु खाद्यान्नों के मूल्यों में वृद्धि समान रूप से सारे देश में नहीं हुई। इस प्रकार भारत के अन्य भागों की तुलना में बंगाल में खाद्यान्नों के मूल्यों में वृद्धि काफी कम रही।

इसका कारण पूर्वी बंगाल में कृषि के विस्तार और व्यापार तथा वस्तु - निर्माण की अभिवृद्धि को माना जा सकता है। कम से कम मध्य देश में हुई मूल्य वृद्धि का लाभ केवल व्यापारियों को ही नहीं मिला, बल्कि कच्चे रेशम, नील, शक्कर, तेल, सोड़ा आदि व्यापारिक माल के उत्पादन में लगे किसानों को भी फायदा हुआ जो बहुधा स्वयं ही अंशकालिक व्यापारी होते थे।

 

व्यापार की स्थिति

घरेलू और विदेशी बाजारों के लिए व्यापार और वस्तु-निर्माण में अभिवृद्धि होने के फलस्वरूप उत्पादन और उत्पादकों पर व्यापारियों का नियन्त्रण बढ़ता चला गया। इसका जरिया दादनी या उधारी की प्रणाली थी, जिसके तहत व्यापारी कारीगरों को अग्रिम पूँजी और कच्चा माल सुलभ करा देते थे। इस प्रथा के जरिए कारीगरों को कुछ खास-खास व्यापारियों से बांध देने की कोशिश की गई। आमतौर पर अपने गुमाश्तों के जरिए काम करते हुए, यूरोपीय कम्पनियों ने भी इस दस्तूर को अपनाया। दक्षिण भारत में काफी सारा कपड़ा उत्पादन गाँवों में होता था। यद्यपि सिद्धान्त कारीगर चाहे जिसे अपना माल बेचने को स्वतन्त्र था तथापि अग्रिम राशियाँ देकर उसे किसी खास व्यापारी से बांध देने की कोशिश की जाती थी। धीरे-धीरे यह रिवाज सभी उत्पादों पर जैसे सोड़े, नील और यहाँ तक कि कश्मीरी शाल पर भी लागू हो गया। इससे उत्पादन प्रणाली में कोई बदलाव नहीं आया, यद्यपि खासतौर से यूरोपीय कम्पनियों ने कपड़े के आकार, गुणवत्ता और किस्म के बारे में कड़ी शर्तें लगाने की कोशिश की। कारीगर बहुत कम मामलों में ही सामान्य देख-रेख में काम करते थे। कारीगरों पर व्यापारियों का ऐसा वित्तीय नियन्त्रण था कि उन्हें दिए गए कर्जों या अग्रिम राशियों को कभी-कभी मजदूरी कहा गया है, तथापि दादनी प्रथा अपने-आप में उत्पादन प्रणाली को बदल नहीं सकी। डचों ने अवश्य रेशम अटेरने की कर्मशालाएं स्थापित कीं, जिनमें फिरकी चालक मजदूरी पर काम करते थे, लेकिन इस तरह की कोशिशें बहुत कम की गईं।

 

कारीगरों की स्थिति

कुछ स्वतन्त्र कारीगरों ने उत्पादन और बिक्री की निजी इकाइयाँ स्थापित करने की कोशिश की। उदाहरण के लिए, अठारहवीं सदी के मध्य में लखनऊ में ऐसे उस्ताद कारीगर थे जिनके यहाँ पाँच-पाँच सौ शागिर्द कारीगर काम करते थे। बंगाल में ऐसे समृद्ध बुनकर थे जो उत्पादन के लिए अपनी पूँजी लगाते थे और अपनी मर्जी से अपना माल बेचते थे। कश्मीर में शॉल बनाने का एक बड़ा कारखाना था, जिसमें 300 तक करघे थे। ये एक उस्ताद की सम्पत्ति थे, और उनके मुनाफे का पाँचवाँ भाग उसे मिलता था। ये बातें अठारहवीं सदी के भारत में विकास की सम्भावनाओं के सूचक हैं।

 

ब्याज की स्थिति

सत्रहवीं सदी के मध्य में ब्याज की दर में कुछ गिरावट आई। उदाहरण के लिए, उत्तर भारत में दर 1 से 1.5 प्रतिशत माहवारी से गिरकर 0.75 या उससे भी नीचे 0.5 पर पहुँच गई। तब भी ये दरें इंग्लैण्ड की दरों से ऊँची थीं। इसका कारण बहुत स्पष्ट नहीं है। शायद भारत में पारम्परिक रूप से ब्याज के तौर पर अधिक मुनाफा मिलता रहा था। लेकिन इस बात का संकेत देने वाले काफी साक्ष्य उपलब्ध हैं कि देश में पूँजी की कमी नहीं थी। देश के विभिन्न भागों में अति धनाढ्य व्यापारी थे। कुछ व्यापारी यूरोपीय कम्पनियों के व्यापार में जब-तब वित्तीय सहायता दिया करते थे। यदि पूँजी का अभाव होता तो भारी मूल्य वृद्धि के बिना निर्यात की बढ़ी हुई माँग को पूरा करने के लिए उत्पादक संसाधनों का विस्तार सम्भव नहीं था।

 

आर्थिक स्थिति में गिरावट

कुछ इतिहासकारों का मत है कि उन्नीसवीं सदी में पूँजीवादी विश्व अर्थव्यवस्था के उदय के पूर्व 'विश्व अर्थव्यवस्थाओं की एक पूरी श्रृंखला मौजूद थी। भारत तथा हिन्द महासागर क्षेत्र को इसी प्रकार की एक अर्थव्यवस्था केहा जा सकता है। फन ब्रोदेल विश्व अर्थव्यवस्था की परिभाषा इस प्रकार करते हैं-'इस ग्रह का आर्थिक रूप से स्वतन्त्र एक ऐसा हिस्सा जो अपनी सारी जरूरतें पूरी करने में सक्षम हैं और जिसे उसके आन्तरिक सम्बन्ध-सूत्र और विनिमय एक सजीव एकता प्रदान करते हैं।' उनका कहना है कि भारत इसी प्रकार का एक केन्द्र था, जिसने 'अफ्रीका के पूर्वी तट से लेकर ईस्ट इंडीज तक हिन्द महासागर को एक प्रकार से अपना निजी समुद्र बना लिया था।' स्टींसगार्ड के अनुसार सत्रहवीं सदी में सूरत, यूरोप के एम्स्टरडम की तरह, व्यापारिक केन्द्र के रूप में उभरा। उसके पृष्ठ देश का काम सारा भारत करता था, और उसके पास प्रचुर पूँजी थी और अध्यवसायी तथा सुयोग्य साहूकारों एवं उद्यमियों की एक बड़ी फौज थी। सभी जहाजों की निर्बाध रूप से उस तक पहुँच थी और उसके पास एक विशाल जहाजी बेड़ा था, जो उस क्षेत्र के कोने-कोने तक एक ही मौसम में पहुँच सकता था। यद्यपि डचों ने बटाविया को इस केन्द्र से एक इतर केन्द्र बनाने की कोशिश की तथापि वे इसमें कामयाब नहीं हो सके, जिसका मुख्य कारण यह था कि उन्होंने मुगलों तथा अन्य एशियाई राज्यों की तरह मुक्त व्यापार करने की बजाए एकाधिकारी व्यापार करने का प्रयत्न किया। अठारहवीं सदी में सफ़वी साम्राज्य के विघटन के फलस्वरूप सूरत में भारत के निर्यात में कमी आई और मुगल साम्राज्य के कमजोर पड़ जाने से सूरत के व्यापारी अंग्रेजों और डंचों के दबाव और व्यापार के एकस्वीकरण के सतत् प्रयत्नों को झेल नहीं पाए। परिणामतः सूरत में भारतीय जहाजरानी में भारी गिरावट आ गई। जहाँ 1701 में सूरत में भारतीय जहाजों की आवक दर सालाना 112 थी; 1716 और 1733 के बीच वह घटकर 32 पर और 1734 तथा 1741 के बीच 19 रह गई। वे अपना माल यूरोपीय जहाजों पर लादने लगे, और धीरे-धीरे अपने बल-बूते अपना करोबार चलाने वाले व्यापारियों की स्थिति के बजाए यूरोपीय कम्पनियों पर निर्भर स्थिति में पहुँचते गए।

उक्त दो घटनाओं के साथ ही एशियाई व्यापार का ह्रास हुआ। स्टींसगार्ड मानते हैं कि अठारहवीं सदी में भारत का कुल समुद्री व्यापार आधा रह गया था। यूरोप का व्यापार बढ़ा किन्तु यूरोपीय व्यापार यूरोपीय कम्पनियों द्वारा यूरोपीय जहाजों में चलाया जाता था। उपर्युक्त परिघटनाओं के फलस्वरूप धीरे-धीरे भारतीय व्यापारियों की स्थिति बिगड़ती चली गई यद्यपि मध्य एशिया और अफ्रीका के तटवर्ती देशों में भारत का व्यापार कुछ मात्रा में चलता रहा। अन्त में भारत पूँजीवादी विश्व अर्थव्यवस्था में समा गया। आर्थिक तथा राजनीतिक दबाव से भारतीय दस्तकारी का विनाश करके और भारत को मात्र कच्चे माल के आपूर्तिकर्त्ता की स्थिति में पहुँचाकर इस समाहार को सम्पन्न किया गया।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सल्तनतकालीन सामाजिक-आर्थिक दशा का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- सल्तनतकालीन केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
  3. प्रश्न- दिल्ली सल्तनत में प्रांतीय शासन प्रणाली का वर्णन कीजिए।
  4. प्रश्न- सल्तनतकालीन राजस्व व्यवस्था पर एक लेख लिखिए।
  5. प्रश्न- सल्तनत के सैन्य-संगठन पर प्रकाश डालिए।
  6. प्रश्न- दिल्ली सल्तनत काल में उलेमा वर्ग की समीक्षा कीजिए।
  7. प्रश्न- सल्तनतकाल में सुल्तान व खलीफा वर्ग के बीच सम्बन्धों की विवेचना कीजिये।
  8. प्रश्न- दिल्ली सल्तनत के पतन के कारणों की व्याख्या कीजिए।
  9. प्रश्न- मुस्लिम राजवंशों के द्रुतगति से परिवर्तन के कारणों की व्याख्या कीजिए।
  10. प्रश्न- सल्तनतकालीन राजतंत्र की विचारधारा स्पष्ट कीजिए।
  11. प्रश्न- दिल्ली सल्तनत के स्वरूप की समीक्षा कीजिए।
  12. प्रश्न- सल्तनत काल में 'दीवाने विजारत' की स्थिति का मूल्यांकन कीजिए।
  13. प्रश्न- सल्तनत कालीन राजदरबार एवं महल के प्रबन्ध पर एक लघु लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- 'अमीरे हाजिब' कौन था? इसकी पदस्थिति का मूल्यांकन कीजिए।
  15. प्रश्न- जजिया और जकात नामक कर क्या थे?
  16. प्रश्न- दिल्ली सल्तनत में राज्य की आय के प्रमुख स्रोत क्या थे?
  17. प्रश्न- दिल्ली सल्तनतकालीन भू-राजस्व व्यवस्था पर एक लेख लिखिए।
  18. प्रश्न- दिल्ली सल्तनत में सुल्तान की पदस्थिति स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- दिल्ली सल्तनतकालीन न्याय-व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- 'उलेमा वर्ग' पर एक टिपणी लिखिए।
  21. प्रश्न- दिल्ली सल्तनत के पतन के कारणों में सल्तनत का विशाल साम्राज्य तथा मुहम्मद तुगलक और फिरोज तुगलक की दुर्बल नीतियाँ प्रमुख थीं। स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- विदेशी आक्रमण और केन्द्रीय शक्ति की दुर्बलता दिल्ली सल्तनत के पतन का कारण बनी। व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- अलाउद्दीन की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ क्या थीं? अलाउद्दीन के प्रारम्भिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए यह स्पष्ट कीजिए कि उसने इन कठिनाइयों से किस प्रकार निजात पाई?
  24. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधार व बाजार नियंत्रण नीति का वर्णन कीजिए।
  25. प्रश्न- अलाउद्दीन की दक्षिण विजय का विवरण दीजिए। उसकी दक्षिणी विजय की सफलता के क्या कारण थे?
  26. प्रश्न- अलाउद्दीन की दक्षिण नीति के क्या उद्देश्य थे, क्या वह उनकी पूर्ति में सफल रहा?
  27. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी की विजयों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  28. प्रश्न- 'खिलजी क्रांति' से क्या समझते हैं? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  29. प्रश्न- अलाउद्दीन की दक्षिण नीति के क्या उद्देश्य थे, क्या वह उनकी पूर्ति में सफल रहा?
  30. प्रश्न- खिलजी शासकों के काल में स्थापन्न कला के विकास पर टिपणी लिखिए।
  31. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी का एक वीर सैनिक व कुशल सेनानायक के रूप में मूल्याँकन कीजिए।
  32. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी की मंगोल नीति की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
  33. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी की राजनीति क्या थी?
  34. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी का शासक के रूप में मूल्यांकन कीजिए।
  35. प्रश्न- अलाउद्दीन की हिन्दुओं के प्रति नीति स्पष्ट करते हुए तत्कालीन हिन्दू समाज की स्थिति पर प्रकाश डालिए।
  36. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी की राजस्व सुधार नीति के विषय में बताइए।
  37. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी का प्रारम्भिक विजय का वर्णन कीजिये।
  38. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी की महत्त्वाकांक्षाओं को बताइये।
  39. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधारों का लाभ-हानि के आधार पर विवेचन कीजिये।
  40. प्रश्न- अलाउद्दीन खिलजी की हिन्दुओं के प्रति नीति का वर्णन कीजिये।
  41. प्रश्न- सूफी विचारधारा क्या है? इसकी प्रमुख शाखाओं का वर्णन कीजिए तथा इसके भारत में विकास का वर्णन कीजिए।
  42. प्रश्न- भक्ति आन्दोलन से आप क्या समझते हैं? इसके कारणों, विशेषताओं और मध्यकालीन भारतीय समाज पर प्रभाव का मूल्याँकन कीजिए।
  43. प्रश्न- मध्यकालीन भारत के सन्दर्भ में भक्ति आन्दोलन को बतलाइये।
  44. प्रश्न- समाज की प्रत्येक बुराई का जीवन्त विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है। विवेचना कीजिए।
  45. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  46. प्रश्न- “मध्यकालीन युग में जन्मी, मीरा ने काव्य और भक्ति दोनों को नये आयाम दिये" कथन की समीक्षा कीजिये।
  47. प्रश्न- सूफी धर्म का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा।
  48. प्रश्न- राष्ट्रीय संगठन की भावना को जागृत करने में सूफी संतों का महत्त्वपूर्ण योगदान है? विश्लेषण कीजिए।
  49. प्रश्न- सूफी मत की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- भक्ति आन्दोलन के प्रभाव व परिणामों की विवेचना कीजिए।
  51. प्रश्न- भक्ति साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- भक्ति आन्दोलन पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भक्ति एवं सूफी सन्तों ने किस प्रकार सामाजिक एकता में योगदान दिया?
  54. प्रश्न- भक्ति आन्दोलन के कारण बताइए
  55. प्रश्न- सल्तनत काल में स्त्रियों की क्या दशा थी? इस काल की एकमात्र शासिका रजिया सुल्ताना के विषय में बताइये।
  56. प्रश्न- "डोमिगो पेस" द्वारा चित्रित मध्यकाल भारत के विषय में बताइये।
  57. प्रश्न- "मध्ययुग एक तरफ महिलाओं के अधिकारों का पूर्णतया हनन का युग था, वहीं दूसरी ओर कई महिलाओं ने इसी युग में अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करायी" कथन की विवेचना कीजिये।
  58. प्रश्न- मुस्लिम काल की शिक्षा व्यवस्था का अवलोकन कीजिये।
  59. प्रश्न- नूरजहाँ के जीवन चरित्र का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। उसकी जहाँगीर की गृह व विदेशी नीति के प्रभाव का मूल्यांकन कीजिए।
  60. प्रश्न- सल्तनत काल में स्त्रियों की दशा कैसी थी?
  61. प्रश्न- 1200-1750 के मध्य महिलाओं की स्थिति को बताइये।
  62. प्रश्न- "देवदासी प्रथा" क्या है? व इसका स्वरूप क्या था?
  63. प्रश्न- रजिया के उत्थान और पतन पर एक टिपणी लिखिए।
  64. प्रश्न- मीराबाई पर एक टिप्पणी लिखिए।
  65. प्रश्न- रजिया सुल्तान की कठिनाइयों को बताइये?
  66. प्रश्न- रजिया सुल्तान का शासक के रूप में मूल्यांकन कीजिए।
  67. प्रश्न- अक्का महादेवी का वस्त्रों को त्याग देने से क्या आशय था?
  68. प्रश्न- रजिया सुल्तान की प्रशासनिक नीतियों का वर्णन कीजिये?
  69. प्रश्न- मुगलकालीन आइन-ए-दहशाला प्रणाली को विस्तार से समझाइए।
  70. प्रश्न- मुगलकाल में भू-राजस्व का निर्धारण किस प्रकार किया जाता था? विस्तार से समीक्षा कीजिए।
  71. प्रश्न- मुगलकाल में भू-राजस्व वसूली की दर का किस अनुपात में वसूली जाती थी? ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर क्षेत्रवार मूल्यांकन कीजिए।
  72. प्रश्न- मुगलकाल में भू-राजस्व प्रशासन का कालक्रम विस्तार से समझाइए।
  73. प्रश्न- मुगलकाल में भू-राजस्व के अतिरिक्त लागू अन्य करों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
  74. प्रश्न- मुगलकाल के दौरान मराठा शासन में राजस्व व्यवस्था की समीक्षा कीजिए।
  75. प्रश्न- शेरशाह की भू-राजस्व प्रणाली का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
  76. प्रश्न- मुगल शासन में कृषि संसाधन का वर्णन करते हुए करारोपण के तरीके को समझाइए।
  77. प्रश्न- मुगल शासन के दौरान खुदकाश्त और पाहीकाश्त किसानों के बीच भेद कीजिए।
  78. प्रश्न- मुगलकाल में भूमि अनुदान प्रणाली को समझाइए।
  79. प्रश्न- मुगलकाल में जमींदार के अधिकार और कार्यों का वर्णन कीजिए।
  80. प्रश्न- मुगलकाल में फसलों के प्रकार और आयात-निर्यात पर एक टिप्पणी लिखिए।
  81. प्रश्न- अकबर के भूमि सुधार के क्या प्रभाव हुए? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  82. प्रश्न- मुगलकाल में भू-राजस्व में राहत और रियायतें विषय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  83. प्रश्न- मुगलों के अधीन हुए भारत में विदेशी व्यापार के विस्तार पर एक निबंध लिखिए।
  84. प्रश्न- मुग़ल काल में आंतरिक व्यापार की स्थिति का विस्तृत विश्लेषण कीजिए।
  85. प्रश्न- मुगलकालीन व्यापारिक मार्गों और यातायात के लिए अपनाए जाने वाले साधनों का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- मुगलकाल में व्यापारी और महाजन की स्थितियों का वर्णन कीजिए।
  87. प्रश्न- 18वीं शताब्दी में मुगल शासकों का यूरोपीय व्यापारिक कम्पनियों के मध्य सम्बन्ध स्थापित कीजिए।
  88. प्रश्न- मुगलकालीन तटवर्ती और विदेशी व्यापार का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  89. प्रश्न- मुगलकाल में मध्य वर्ग की स्थिति का संक्षिप्त विवेचन कीजिये।
  90. प्रश्न- मुगलकालीन व्यापार के प्रति प्रशासन के दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिये।
  91. प्रश्न- मुगलकालीन व्यापार में दलालों की स्थिति पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  92. प्रश्न- मुगलकालीन भारत की मुद्रा व्यवस्था पर एक विस्तृत लेख लिखिए।
  93. प्रश्न- मुगलकाल के दौरान बैंकिंग प्रणाली के विकास और कार्यों का वर्णन कीजिए।
  94. प्रश्न- मुगलकाल के दौरान प्रयोग में लाई जाने वाली हुण्डी व्यवस्था को समझाइए।
  95. प्रश्न- मुगलकालीन मुद्रा प्रणाली पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  96. प्रश्न- मुगलकाल में बैंकिंग और बीमा पर प्रकाश डालिये।
  97. प्रश्न- मुगलकाल में सूदखोरी और ब्याज की दर का संक्षिप्त विवेचन कीजिये।
  98. प्रश्न- मुगलकालीन औद्योगिक विकास में कारखानों की भूमिका का विस्तार से वर्णन कीजिए।
  99. प्रश्न- औरंगजेब के समय में उद्योगों के विकास की रूपरेखा का वर्णन कीजिए।
  100. प्रश्न- मुगलकाल में उद्योगों के विकास के लिए नियुक्त किए गए अधिकारियों के पद और कार्यों का वर्णन कीजिए।
  101. प्रश्न- मुगलकाल के दौरान कारीगरों की आर्थिक स्थिति का वर्णन कीजिए।
  102. प्रश्न- 18वीं सदी के पूर्वार्ध में भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति की व्याख्या कीजिए।
  103. प्रश्न- मुगलकालीन कारखानों का जनसामान्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा?
  104. प्रश्न- यूरोपियन इतिहासकारों के नजरिए से मुगलकालीन कारीगरों की स्थिति प

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